कर्म के फल की चाह नहीं, जो करने योग्य हो, कर्म करे ।
संन्यासी और योगी वही, नहीं जो अग्नि और कर्म तजे ॥
कहते जिसे संन्यास उसी को, योग, हे अर्जुन, तुम जानो ।
संकल्प त्याग कर सके नहीं जो, योगी उसको मत मानो ॥
आरम्भ योग में जो करते, उनके लिए कर्म ही साधन है ।
जो योग में हो जाते प्रवीण, कर्मों का त्याग ही साधन है ॥
जब रहे नहीं विषयों में रुचि, आसक्ति कर्म में होती क्षीण ।
संकल्प सभी हों त्याग दिए, कहते तब उसको योग प्रवीण ॥
मन से अपना उद्धार करे, नहीं इससे अपना करे पतन ।
यह मन ही मित्र स्वयं का है, स्वयं का ही शत्रु है मन ॥
जिसने अपना मन जीता है, मन उसके लिए बन्धु जैसा ।
नहीं वश में किया है जिसने मन, अपकार करे शत्रु जैसा ॥
सर्दी गर्मी में, सुख दुःख में, सम्मान और अपमान में ।
मन जिसने जीता, शांत है जो, होता है स्थित परमात्म में ॥
ज्ञान विज्ञान से तृप्त है मन, कूटस्थ है, इन्द्रियाँ वश में हैं ।
पाषाण और स्वर्ण में समदर्शी, उस पुरुष को योगी कहते हैं ॥
सुहृद मित्र में, वैरी में, उदासीन मध्यस्थ में जो ।
सज्जन में और पापी में, समबुद्धि रखते श्रेष्ठ हैं वो ॥
एकान्त में रहते हुए योगी, संयत कर ले अपना चित्त ।
परिग्रह से आशा से रहित हो, करे समाधि में मन को स्थित ॥
कुशा घास से, वस्त्र आदि से, आसन हो जो बना हुआ ।
ऊँचा नहीं, नीचा भी नहीं, पवित्र स्थान पर उसे बिछा ॥
स्थिर आसन पर बैठे स्थिर हो, मन अपना एकाग्र करे ।
इन्द्रियों की सब रोक क्रियाएँ, योग का दृढ़ अभ्यास करे ॥
सिर गर्दन और काया सीधी, निश्चल होकर, स्थिर बैठे ।
नाक के अग्र भाग को देखे, इधर उधर कुछ नहीं देखे ॥
शांतमना हो, भय से मुक्त हो, ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित ।
मन संयत कर, मेरे परायण, चित्त को मुझ में करे स्थित ॥
इस रीति से मन संयत कर, अभ्यास जो योगी करता है ।
मेरे स्वरूप की, शान्ति की, निर्वाण की प्राप्ति करता है ॥
योग सिद्ध नहीं होता उसका, भोजन अधिक जो करता है ।
अथवा भोजन करे बहुत कम, सोता अधिक या जगता है ॥
उचित करे आहार विहार, कर्मों में भी उचित व्यवहार ।
यथा योग्य सोए और जागे, योग कराए दुःखों से पार ॥
चित्त संयमित होता है जब, आत्मा में ही स्थित होता ।
स्पृहा कामना की नहीं रहती, युक्त तभी योगी होता ॥
[Source: Geeta Chapter - 6, Verse: 1-18]
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